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अपनों से अपनी परिशीलन की प्रामाणिकता

पशु-पक्षी बोलते हैं। उनकी बोलियाँ हृदय के भाव को दूसरों पर प्रकट करने के लिए ही होती हैं परन्तु उनके द्वारा केवल दुःख-सुख और घृणा प्रेम के साधारण मनोविकार व्यक्त हुआ करते हैं। वास्तव में, सभी जीवधारी अपने मनोगत विचार दूसरों पर प्रकट किया करते है

किन्तु ऐसा करने में मनुष्य अपनी श्रेष्ठता के अनुकूल अन्य से विशेषता रखता है। हाँ, संसार में जितने कार्य हो रहे हैं, उन सबके विचार उस बोली से प्रकट नहीं किए जाते। इस कारण पशु-पक्षी की बोली सारी आवश्यकताओं को पूर्ण करने वाली नहीं होती; वह अस्पष्ट, अधूरी और अव्यक्त होती है।

मनुष्य इसी कमी से बचा है। स्वभावतः वह पशु-पक्षी से उन्नत दशा में सोचने के अतिरिक्त सभी विषयों पर विचार कर सकता है और अनुभवित विचारों को दूसरों पर साफ़-साफ़ प्रकट कर सकता है। उसकी ऐसी विशिष्ट क्रिया का साधन भाषा है। भाषा ही उसे भावों को व्यक्त करने में समर्थ बनाती है।

मानव समाज में भी हृदयगत विचारों को पशु-पक्षी की भाँति अस्पष्ट ढंग से व्यक्त करने वाले कुछ लोग दिखाई देते हैं। गूँगों की गणना उनमें सर्वप्रथम है। गूंगों के भाव पशु-पक्षियों के सदृश होते हैं किन्तु भाषा के व्यवहार में असमर्थ वे भिन्न मुखाकृतियों अथवा हाथ-पैर के संकेतों अथवा हूँ-ऊँ की अव्यक्त आवाज़ों द्वारा बड़ी कठिनाई से मुख्य भाव दूसरों पर व्यक्त कर पाते हैं।

दूसरी कमी उनमें यह होती है कि वे पारस्परिक प्रेम की घनिष्ठता प्रदर्शित नहीं कर सकते। गूंगों के बाद उन जंगली जातियों का क्रम आता है, जो घने जंगलों में पशु-पक्षियों की भाँति बहुत कम आवश्यकताओं के साथ अपना जीवन प्रकृति की गोद में अत्यन्त सादगी से व्यतीत किया करते हैं।

उस दशा में उनकी भाषा कुछ अव्यक्त सी होती है। वे संकेतों के अलावा आकृति चेष्टाओं के द्वारा भी अपने विचारों को प्रकाशित करते हुए पाए जाते हैं। जब उन्नत समाज में आने पर उन्हें भाषा का अध्ययन करना पड़ता है तब उनके भाव ही बदलने लगते हैं और वे गूंगों की स्थिति से ऊँचे उठकर सभ्य-गति को प्राप्त होने लगते हैं तब उनकी आरम्भिक आदत में परिवर्तन दिखाई देने लगता है। बाद में, वे ही सामाजिक जीवन की प्रियता को अपनाकर सांसारिक व्यवहार में चतुर बन जाते हैं।

इस परिवर्तन का श्रेय भाषा को ही प्राप्त होता है। अतः भाषा की उपयोगिता मानव मात्र के लिए अलौकिक है क्योंकि भाषा ही मनुष्य और पशु के जीवन में अन्तर लाती है; संसार के सारे व्यापारों के सम्पादन के एक विशेष साधन से मनुष्य को समन्वित करती है और समाजप्रियता का बन्धन दृढ कर समाज-विशेष को सभ्यता और समुन्नति के पथ का पथिक बनाती है। ऐसी उपयोगिता की दृष्टि से ही विद्वान् भाषा का राष्ट्र से अधिक सम्बन्ध समझते और भाषा के इतिहास को उसके बोलने वालों का इतिहास मानते हैं।

मनोगत भावों को दूसरों पर प्रकट करने की आवश्यकता प्रत्यक्ष और परोक्ष, दो दशाओं में हुआ करती है। प्रत्यक्ष दशा में बोलने और सुननेवाले समीप रहते हैं और बोलनेवाले को अपना विचार बोलकर सुननेवाले पर व्यक्त करना पड़ता है। उस समय उसकी भाषा ‘बोल-चाल की भाषा’ होती है किन्तु परोक्ष दशा में, जब सुननेवाला दूर हो और बोल-चाल से भाव व्यक्त करना असम्भव हो तब भाषा को भाव-परिवर्तन के जिस साधन में अपना रूप प्रकट करना पड़ता है, उस अवस्था की भाषा की सहयोगिनी ‘लिपि’ है।

वह लिपि ही किसी वस्तु पर भाषा का चित्र बनाकर सुननेवाले के पास पहुँचाकर, भाषा का उद्देश्य पूर्ण करने की कृपा करती है। इस कारण परोक्ष दशा में विचार-विनिमय का साधन लेखन अथवा लिपि है, जिसका सम्मान विशिष्ट और सभ्य समाज सर्वदा किया करता है।

आज भी विश्व भाषाओं की कई लिपियों ऐसी है, जिनमें विचारानुकूल चित्र ही बनाए जाते हैं लेकिन जैसे-जैसे मानव समाज समुन्नत होता जाता है, वह अपनी सामग्री को सौन्दर्य प्रदान करने की चेष्टा करता है; तदनुकूल लिपियों को भी सभ्यता की वृद्धि के साथ-साथ सौन्दर्य प्राप्त हुआ करता है। किसी भाषा की लिपि के विकास क्रम पर ध्यान देने से यह बात साफ़-साफ़ विदित हो जाती है।

प्रमाणार्थ अंगरेजी अथवा हिन्दी के छापे के अक्षरों को देखने से ज्ञात होगा कि सौन्दर्य दृष्टि से उनके भिन्न-भिन्न प्रकार के अलंकृत अक्षरों का प्रयोग किया जाता है। इस तरह की मनोवृत्ति पुरातनकाल से अन्य विचार-विभागों के साथ लिपि के प्रति भी कार्यरत दिखाई देती है। अतः स्मरण करना चाहिए कि लिपि का स्वरूप स्थायी नहीं होता, वह काल क्रम में बदलता रहता है।

संसार की परिवर्तन शक्ति तो सर्वमान्य है। प्रत्यक्ष भी है कि संसार की किसी वस्तु में स्थिरता नहीं। जितने पदार्थ हैं, सब परिवर्तनशील हैं। उनके साथ मानव-भाव भी परिवर्तन- ग्रस्त होते जाते हैं। ऐसे में, भाषा का स्वरूप कैसे स्थिर रहे? पुरातनकाल से मनुष्य की आदिम दशा से भाषा अपना स्वरूप बनाती बिगाड़ती आई है। जिस प्रकार कोई भाव ‘कल’ व्यक्त किया जाता है, उसी प्रकार वह ‘आज’ नहीं किया जाता है। जो रूप आज है, उस पर भी परिवर्तन का प्रभाव हाथ बढ़ाए दिखाई देता है। यह गति सनातन काल से है।

संयोग यही है कि वह परिवर्तन आकस्मिक न होकर, इतना धीरे-धीरे होता है कि उससे तात्कालिक क्षति नहीं जान पड़ती। प्रत्युत बोलनेवालों को साधारणतः अपनी भाषा का परिवर्तन उस समय खटकता भी नहीं। मनुष्य की सभ्यता का प्रभाव भाषा पर अनायास पड़ा करता है, उसी प्रकार जलवायु और स्थल की छाप भी उस पर विद्यमान रहती है। स्थान अथवा जलवायु में हेर-फेर होते ही भाषा में भी भेद कार्यगत हो जाता है, जिससे नए शब्द बनते है और पुराने लुप्त अथवा परिवर्तित हो जाते हैं।

यही कारण है कि किसी भाषा के इतिहास में भिन्न-भिन्न प्रकार के शब्द मिलते हैं। उसमें एक अर्थ के द्योतक कई शब्द होते। है अथवा एक ही शब्द के भिन्न-भिन्न अर्थ होते हैं।

इन्हीं बोली, भाषा तथा लिपि की नींव पर हमने एक ऐसा संसार ला खड़ा किया है, जिसमें प्रवेश करके आप अपने लक्ष्य का सफल सन्धान कर सकेंगे। हाँ, इसके लिए सजग सतर्क- सचेष्ट दृष्टि का परिचय देना होगा। इसके पूर्व इसी विषय पर मेरी दो कृतियाँ है

किन्तु देश के दूर- सुदूर अंचलों से सैकड़ों विद्यार्थियों ने मुझसे दूरभाष द्वारा सम्पर्क साधकर जब परीक्षाओं की दृष्टि से विविध प्रकार की वांछित विषय सामग्री की माँग की तब अपने परम धर्म (कर्तव्य) का निर्वहन करते हुए, मैंने मानकता की प्रतिष्ठा करते हुए ‘मानक सामान्य ‘हिन्दी’ आप सबको उपलब्ध कराई है।

अपने विद्यार्थी जीवन के उन समस्त श्रद्धेय गुरुजनों को, जिन्होंने प्रत्यक्ष-परोक्ष रूप में मेरे शिष्यत्व को अंगीकार कर, मुझे सद्संस्कारों से सम्पन्न किया है, इस कृति के माध्यम से ‘मेरा नमन्’ सम्प्रेषित है। उन कैक्टसों को, जो मेरे प्रशस्त मार्गों में अवरोध बिछाने और घात करने के लिए बराबर बाट जोहा करते हैं, खुली चुनौतीभरे मेरे शब्द – छू सको तो छू लो!

यह पुस्तक स्वयं में सम्पूर्ण है। हिन्दी भाषा (सामान्य हिन्दी) का ऐसा कोई भी पक्ष अथवा आयाम नहीं है जिसका इसमें समावेश न हो। आप गम्भीरता से अध्ययन करें।

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