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भाषा – शास्त्र का समीक्षण और परीक्षण

‘भाषा’ शब्द संस्कृत के ‘भाष्’ धातु से निष्पन्न माना जाता है। इसका अर्थ है, व्यक्त करना अथवा कहना। भाषा का मुख्य अभिप्राय ध्वनि-भाषा से है। इसके माध्यम से ही विचारों अथवा भावों की अभिव्यक्ति सम्भव है। भाषा की प्रथम इकाई हम ‘वर्ण’ अथवा ‘अक्षर’ को कहते हैं।

भाषा – अर्थ और परिभाषा

“भाष्यते इति भाषा ।” का भाव यह है कि भाषा व्यक्त वाणी को कहते हैं। “भाष व्यक्ता याँ वाचि ।” अर्थात् बिना समाज के भाषा की रचना और बिना भाषा के समाज की कल्पना पूर्णतः निरर्थक है। “यन्मनसा ध्यायति तद् वाचा वदति।” (यजुर्वेद) के आधार पर यह कहा जा सकता है कि मनुष्य के विचारों की अभिव्यक्ति के लिए व्यक्त ध्वनि संकेतों का व्यवहार ही भाषा है।

भाषा को निम्नलिखित रूपों में प्रकट किया जा सकता है।

भाषाविद् डॉ० पृथ्वीनाथ पाण्डेय के अनुसार, “भाषा का अस्तित्व प्रतीकों में होता है। इसके समस्त प्रतीक व्यवस्थित, सार्थक तथा सप्रयत्न उच्चरित होते हैं। ये प्रतीक कई प्रकार के होते। हैं :- नेत्रग्राह्य, श्रोतृग्राह्य तथा स्पर्शग्राह्य।”

कुछ विद्वानों ने भाषा की परिभाषा इस प्रकार की है

“जिन ध्वनि-चिह्नों द्वारा मनुष्य परस्पर विचार-विनिमय करता है, उनकी समष्टि को भाषा

कहते हैं।”

  • डॉ० बाबूराम सक्सेना

“उच्चरित ध्वनि संकेतों की सहायता से भाव अथवा विचार की पूर्ण अभिव्यक्ति भाषा है।”

  • आचार्य देवेन्द्रनाथ शर्मा

Language is a system of arbitrary vocal symbols by means of which man of social groups co-operates and interacts.”

( भाषा यादृच्छिक वाक्-प्रतीकों की एक ऐसी पद्धति अथवा व्यवस्था है, जिसके माध्यम से सामाजिक प्राणी मनुष्य पारस्परिक भाव-विनिमय अथवा सहयोग करते हैं। भाषा वाक् यानि वाणी के सामाजीकरण का नाम है। यह मनुष्य ‘की सूक्ष्म ) संवेदनशील

अभिव्यक्ति का प्रकटीकरण है। इन सभी परिभाषाओं से यह सुस्पष्ट हो जाता है कि भाषा एक

पद्धति है।

वैदिक और लौकिक भाषा-विवेचन

जिन देशों में शिक्षा का समुचित रूप में प्रचार है, उनमें भी शिक्षित, अर्द्ध-शिक्षित तथा अशिक्षित जन-समूहों की बोल-चाल की भाषा में भेद दिखायी देता है। अस्तु, उस वैदिक भाषा के, जिसे लोग बोल-चाल के लिए भी काम में लाते हैं, शीघ्र ही दो रूप हो गये – एक तो वह, जिसका विकास पढ़े-लिखे विद्वानों में हुआ और दूसरा वह, जो अपढ़ जनों में प्रचलित रहा। विद्वानों में जिस रूप का विकास हुआ अथवा अन्त में उसकी जो स्थिति निर्धारित हुई, वह भी वैदिक भाषा से कुछ भिन्न थी। जैसे ; यदि वैदिक भाषा में विप्रासः और विप्राः, देवास और देवाः आदि के दोनों रूप प्रचलित थे, तो विद्वानों की भाषा में केवल ‘विप्राः’ और ‘देवा’ रूप रह गये। ये सब उसी प्रकार हुए, जिस प्रकार हिन्दी – क्रियाओं के जाय है, जाता है- सरीखे दो रूपों में से केवल ‘जाता है’ सरीखे रूप ही रह गये हैं। धीरे-धीरे कई प्रकार के भेद होते गये तथा वैदिक और लौकिक भाषाओं के, एक के पीछे दूसरा, अनेक छोटे-बड़े व्याकरण भी बन गये, जैसे ब्राह्म, ऐशान, ऐन्द्र, प्राजापत्य, आपिंशल, पाणिनीय, चन्द्र, शाकटायन आदि। इन व्याकरणों को ताला लगाकर उस समय के विद्वानों ने वैदिक तथा अपनी संस्कारित भाषा को तंग कोठरियों में बन्द कर दिया, जिससे उनमें परिवर्तन की छूत न लगने पाये। ‘पाणिनी’ ने ‘लोके वेदे च’ कहकर वैदिक तथा लौकिक भाषा का पार्थक्य स्पष्ट रूप में स्वीकार किया है, किन्तु भाषा को क्षयी और मृत्यु से बचाने की जगह इस व्याकरण-रूपी सञ्जीवनी बूटी ने इस पर ठीक विपरीत असर डाला, जैसा कि कालान्तर में ज्ञात हुआ; अर्थात् दोनों भाषाओं की गति सीमा – बद्ध हो गयी। भाषा को अछूता रखने की चिन्ता करनेवाले विद्वान् केवल व्याकरण बनकर चुप नहीं रहे। भिन्न-भिन्न भाषा-भाषियों के साथ जब आर्यों का व्यापारिक, राजनीतिक तथा सामाजिक सम्पर्क बढ़ा, तब दूसरी भाषाओं के शब्दों को अपने घर में घुसता देखकर प्राचीनता-प्रिय उन आर्य-विद्वानों ने रोक-थाम करने की और भी चेष्टाएँ। की। विदेशी भाषाओं को ‘यावनी’ अथवा ‘मलेच्छ’ भाषाएँ बताकर उनको न पढ़ने तक का आदेश दे दिया।

इस प्रकार अपनी समझ में मज़बूत से मज़बूत ताला लगाकर विद्वज्जन अपने घर के भीतर बैठे-बैठे लौकिक तथा वैदिक संस्कृत के साथ चौसर खेला करते थे। इधर, जन-समुदाय की जो भाषा थी, वह चारों ओर से घिरे हुए सरोवर की भाँति न होकर, स्वेच्छाचारिणी नदी की भाँति थी। इस भाषा ने, जिसे वैदिक काल के पीछे की प्राकृत कह सकते हैं, आवश्यकतानुसार अपनी शब्द- सृष्टि में वृद्धि की । इस प्रकार इसका विकास अनवरत होता चला गया। प्राकृत में जिस प्रकार से शब्दों में परिवर्तन हुए, उसके कुछ उदाहरण देते हुए यहाँ संस्कृत से उसका भेद स्पष्ट किया गया

है; साथ ही यह दिखाने के लिए कि आधुनिक हिन्दी पर संस्कृत का कितना प्रभाव पड़ा है, हिन्दी- शब्द भी दिये गये हैं:-

उल्लिखित उदाहरणों में से सिंह, गधा और ग्वाल स्पष्ट रूप में सूचित करते हैं कि यद्यपि हिन्दी की उत्पत्ति अपभ्रंश से है तथापि संस्कृत- द्वारा उसकी पुष्टि होती रही है। अशिक्षा, अनाभ्यास, जिह्वा-दोष, त्वरा (शीघ्रता) आदि कारणों से उत्पन्न एक-एक का

एकेक, है ही का हई, हर एक का हरेक, रोवो, होवो आदि का क्रमशः रो, हो, होऊँ का हूँ आदि रूप हिन्दी में प्रचलित हैं, जो बड़े-बड़े आचार्यों द्वारा ठीक माने जाते हैं। हमारे देखते-ही-देखते तौ का तो हो गया। दो बार किसी शब्द को लिखने की आवश्यकता पड़ती थी, तो दो का अंक (२) लिखकर काम चला लिया जाता था। यह प्रथा बहुत पुरानी थी किन्तु यह भी धीरे-धीरे लुप्त होती गयी। इधर, शब्द-शुद्धि के कुछ पक्षपातियों ने राजनैतिक को राजनीतिक करके एकेक, हरेक आदि को एक-एक, हर एक आदि रूप में फिर लिखना प्रारम्भ कर दिया है क्योंकि एकेक, हरेक, राजनैतिक आदि संस्कृत-व्याकरण के अनुसार शुद्ध नहीं हैं। हमारे विचार में इन शब्दों का रूप परिवर्तन फारसी लिपि में लिखनेवालों की कृपा से हुआ था। संस्कृत-व्याकरण का अनुसरण करनेवालों ने ‘सामर्थ्य’ शब्द को, जो हिन्दी में स्त्रीलिंग समझा जाता था, पुल्लिंग बना डाला है। यह शब्द त्रिशंकु की भाँति लटक रहा है और दोनों लिंगों में इसका व्यवहार होने लगा है।

भाषा का जीवन्त रूप

इन्हीं सब बातों से प्रमाणित होता है कि हिन्दी-भाषा एक जीवित भाषा है। मधुपुरी-मधुरा = मथुरा; वाराणसी= बनारस आदि भी इसी प्रकार के परिवर्तन के साक्षी हैं। ‘मथुरा’को ‘मटा’, कलकत्ता को कैलकटा कहना देश-भेदजन्य जिह्वा दोष का प्रत्यक्ष उदाहरण है। सदा से ही शब्दों का रूप इसी प्रकार बिगड़ता अथवा बदलता रहा है। यह रोग बहुत पुराना है। इसकी रोक- थाम करने के लिए स्फोटक चन्द्रिका में लिखा गया है कि असाधु-शब्द बोलने से पाप और साधु-शब्द बोलने से पुण्य होता है। यही नहीं, एक बार ऐसा भी हुआ कि हेरयः हेरयः की जगह हेलयः हेलयः कहने के कारण ही दैत्यों को युद्ध में देवों से हारना पड़ा। (दैत्येयैर्हेरयो हेरय इति वक्तव्ये हेलयो हेलय इति प्रयुञ्जानाः पराबभूवुः ) । इन्द्र को मारने के लिए त्वष्ट्रा ने

वृत्रासुर की सृष्टि की थी, किन्तु उसको आशीर्वाद देते समय उसने इन्द्रशत्रोविवर्द्धस्व की तत्पुरुष । की जगह बहुव्रीहि के रूप में कह दिया। फिर क्या था, पासा पलट गया— बेचारा वृत्रासुर उलटा इन्द्र के हाथों मारा गया।

प्राचीन आर्य-विद्वानों ने अपभ्रंशों से घबराकर ऐसी-ऐसी बातें कही हैं, जिनसे यही अनुमान

होता है कि उस समय भी कई बार भाषा-विषयक क्रान्तियाँ हुईं और तरह-तरह की हुईं। कितनी

ही पर्याप्त रोक-थाम करने पर भी न केवल लोक भाषा का परिवर्तनशील प्रवाह जारी रहा, बल्कि

सात तालों में बन्द की गयी संस्कृत भाषा में भी बाहर के अनेक शब्द आते रहे और आज भी,

जबकि संस्कृत को मृतभाषा समझा जा रहा है, आवश्यकतानुसार आते रहते हैं। फुटबॉल, बेतार

का तार, बर्की, गैस आदि के लिए नये शब्द गढ़ना व्यर्थ में क्लिष्ट कल्पना करना है।

शब्द-शास्त्र का तुलनात्मक अध्ययन

शब्द-शास्त्र का तुलनात्मक अध्ययन करने पर हमें अपनी पुरानी भाषा और दूसरे देशों की पुरानी भाषाओं के शब्दों में जो समता दिखायी देती है, उससे यही अनुमान होता है कि कभी हममें और कुछ उन जातियों में, जो अब हमारी दृष्टि में हमसे बिल्कुल भिन्न हैं, घनिष्ठ सम्पर्क था और इस शब्द- सम्पत्ति पर सबका समान अधिकार था। नित्य प्रति व्यवहार में आनेवाले माता, पिता, स्वसा, दुहितृ और गिनती के एक, दो, तीन, चार आदि शब्द ही नहीं, बल्कि कितने ही और शब्द भी उल्लिखित अनुमान की पुष्टि करते हैं।

संस्कृत में एक क्रिया का रूप है भरति । ग्रीक का फेराइ (Pherei), लैटिन का फ़र्ट (Fert), गॉथिक का बैरिथ (Bairith) और अँगरेज़ी का बेयरेथ (Beareth) भी वही अर्थ देता है। संस्कृत में जिसको हृद कहते हैं, उसी को ग्रीक में (‘ह’ का ‘क’ हो जाने के कारण) कर्दिआ (Kardia), लैटिन में कार्डिस (Cardis), गॉथिक में हार्टो (Hearto), अँगरेज़ी में हार्ट (Heart) और जर्मन में हर्ट्ज़ (Hertz) कहा जाता है। संस्कृत में जिसको हंस कहा जाता है, उसी को ग्रीक में चेन (Chen), लैटिन में हैंसर (Hanser), एंग्लो-सैक्सन में गोस (Gos), अँगरेज़ी में गूज़ (Goose) और जर्मन में गैन्स (Gans) कहते हैं। इस प्रकार अर्थ और ध्वनि की समता रखनेवाले अनेक शब्द, शब्द-शास्त्र का तुलनात्मक अध्ययन करनेवाले विद्वानों ने खोज निकाले हैं।

हाँ, आर्यों के आदिम निवास-स्थान के विषय में अभी मतभेद बना हुआ है, किन्तु यदि बहुमत पर ध्यान दिया जाए तो यह स्थान मध्य एशिया के आस-पास कहीं ठहरता है। सम्भव है, यह मध्य एशिया के आस-पास न होकर और ही कहीं रहा हो और वहाँ से फिर यह जाति मध्य एशिया में आयी हो, किन्तु इसमें कोई सन्देह नहीं कि कालान्तर में वहाँ इस जाति की दो शाखाएँ हो गयीं। कुछ लोग पश्चिम की ओर बढ़कर यूरोप में बस गए और कुछ पूर्व की ओर बढ़कर दो समूहों में बँट गये। एक समूह ने फारस तथा आस-पास के देशों में डेरा डाल दिया और दूसरा और भी आगे बढ़कर भारतवर्ष में बस गया। धीरे-धीरे और भी लोग आते गये और वे बढ़ते-बढ़ाते विन्ध्याचल की तलहटी तक आ पहुँचे। अतिप्राचीन काल में हिमालय और विन्ध्याचल के बीचवाले देश को ही ‘आर्यावर्त्त’ की संज्ञा दी गयी थी। बाद में ‘आर्यावर्त्त’ शब्द सम्पूर्ण भारतवर्ष के लिए प्रयुक्त किया जाता था। व्याडि ने लिखा है

“आसमुद्राच्च वै पूर्वादासमुद्राच्च पश्चिमात्

हिमवद्विन्ध्ययोर्मध्ये आर्यावर्त्त विदुबुधाः।”

आर्यों के फारसवाले उपनिवेश में परजिक और मीडिक भाषाओं का विकास हुआ था। भारतवर्ष में अड्डा जमाने वाली शाखा की सबसे पहली भाषा, जो ज्ञात है, ऋग्वेद की भाषा है। पारसियों का धर्म-ग्रन्थ आवेस्ता मीडिक भाषा में है। यह मीडिक भाषा यहाँ की प्राचीन भाषा से कितनी समता रखती है, इसका कुछ नमूना यहाँ दिखाना प्रासंगिक है।

वैदिक शब्द मित्र को आवेस्ता में मिश्र कहा गया है। वैदिक शब्द नर आवेस्ता में नरेम्, देव शब्द दव, शत शब्द सत और पशु शब्द पसु रूप में देखा गया है। कुछ शब्द ऐसे भी हैं, जिनका रूप तनिक भी बदला हुआ दिखायी नहीं देता, जैसे-गाथा, मे, मम, त्वम्, अस्ति आदि।

इन सब बातों से यह परिणाम निकलता है कि वैदिक तथा मीडिक भाषाओं से पहले कोई एक भाषा और थी, जो इनकी और इनकी यूरोपीअन बहनों की जननी थी। यूरोपीअन भाषा से हमारा तात्पर्य उन अपभ्रंश भाषाओं से है, जिनका मूल भाषा से अलग होने पर स्वतन्त्र विकास यूरोप के अलग-अलग भागों में अलग-अलग रूप में हुआ। आशय यह कि मीडिक और वैदिक भाषाओं को भी उसी मूल भाषा का अपभ्रंश समझना चाहिए।

वेद की ऋचाओं से यह ज्ञात होता है कि प्राचीन आर्य अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति करने की क्षमता तथा उसमें वृद्धि करने की प्रवृत्ति रखते थे। वे विद्वान ही नहीं थे, बल्कि किसान और शिल्प-विद्याविशारद, कारीगर भी थे। वे तरह-तरह के यन्त्र बनाते थे; युद्ध करते थे तथा कविता भी। अपनी-अपनी प्रवृत्ति के अनुसार जो काम जिसको भाता था, उसी काम को वह करता था, परन्तु यह कैसे सम्भव है कि पण्डितों और किसानों की बोली सदा अथवा बहुत अधिक काल तक एक रह सके ? आज भी लिखे-पढ़े और अपढ़ लोगों की भाषा में उनकी शिक्षा, अशिक्षा, कुशिक्षा अथवा संगति और देश-काल के अनुसार भेद दिखायी देता है। प्रकृति का जो नियम अब है, वही पहले भी था।

भाषाओं का पारस्परिक प्रभाव

परदेशी भाषाएँ न पढ़ने का उपदेश पहले दिया गया था। उसका भी वही परिणाम हुआ, जो अँगरेज़ी शासन-काल के प्रारम्भिक काल में अँगरेज़ी भाषा के प्रति हुआ था यानि तब उनके प्रति घृणा की भावना पनपी; लेकिन सर्वसाधारण ने विरोधियों की बात न मानी और निषेधों का विचार न करके लोग अन्य देशों की भाषाएँ पढ़ते रहे। यदि ऐसा न किया जाता तो राजधर्म और व्यापार कैसे चलता ? ‘महाभारत’ में हम पढ़ते हैं कि लाक्षागृह के विषय में सचेत करते समय महात्मा विदुर ने युधिष्ठिर से म्लेक्ष-भाषा में सम्भाषणा तात्पर्य यह कि हज़ार रोक-थाम करने पर भी भाषाओं का प्रभाव एक-दूसरे पर पड़ ही जाता है।

इस भाषा-संघर्ष के दौरान कितने ही शब्द अपना देश छोड़कर दूसरी जगह जा बसते हैं और कुछ शब्द दोनों देशों में अड्डा जमाये रहते हैं। लड़ाई में घायल हो जाने के कारण कुछ का रूप बदल जाता है और कुछ बेचारे अपनी जान से ही हाथ धो बैठते हैं। इसी नियम के अनुसार, प्राकृत में भी बहुत-से शब्द ऐसे पाये जाते हैं, जिनका पता देववाणी में नहीं मिलता। ये दूसरे देशों के रूप बदले हुए शब्द हो सकते हैं अथवा उस भाषा के हो सकते हैं, जो उन लोगों में बोली जाती थी, जो आर्यों के यहाँ आने के समय बसे हुए थे। वस्तुतः प्राकृत का भी सब जगह एक ही रूप प्रचलित न था। जिन कारणों से बंगाल के निवासी आज सौम्य को शौम्य और पंजाब के निवासी स्कूल को सकूल तथा आत्म को आतम कहते हैं, उन्हीं अथवा उनसे

मिलते-जुलते किन्हीं दूसरे कारणों से प्राकृत के भी कई रूप दिखायी देने लगे थे, यद्यपि उनमें समानता अधिक थी। जब प्राकृत में साहित्य-रचना होने लगी तब बोल-चाल की भाषा और उसमें भेद हो गया। इसी प्रकार प्राकृत ने कई रूप बदले। उसका दूसरा व्यापक रूप पालि है, जो गौतम बुद्ध से संबंधित होने के कारण सबसे महत्त्व का माना जाता है। पालि में भी बहुत कुछ साहित्य-रचना हुई। उस समय के जो शिलालेख, ताम्र-पत्र आदि मिलते हैं, उनसे पालि के भिन्न- भिन्न रूपों का कुछ हाल ज्ञात हो सकता है। यहाँ हम पहली प्राकृत से दूसरी प्राकृत यानी पालि का सम्बन्ध दिखाकर व्यर्थ आपका समय लेना नहीं चाहते। हाँ, इतना अवश्य बता देना चाहते। हैं कि बोल-चाल की भाषा होने और साहित्य-रचना के लिए बहुत पुरानी न होने पर भी प्राकृत किसी समय अगणित अलंकारों से सजी हुई संस्कृत से अधिक मधुर और चमत्कृत समझी जाती थी; और वह भी मूर्खों में नहीं, बल्कि उद्भट विद्वानों में। राजशेखर ने कर्पूरमञ्जरी में लिखा है.

“परुसा सक्क अबन्धा पाउ अबन्धो विहोई सुउमारो पुरुष महिलाणं जेन्ति अमिह अन्तरं तेतिय मिमाणं ।”

इसका अर्थ यह है कि संस्कृत की रचना ‘कठोर’ और प्राकृत की ‘सुकुमार’ होती है। इन दोनों भाषाओं में पुरुष और स्त्री में बराबर अन्तर है।

कालान्तर में, विद्वानों ने देश-भेद से प्राकृत के शौरसेनी, मागधी और महाराष्ट्री – ये तीन अपभ्रंश माने थे। उस समय दक्षिण-पश्चिम में प्रचलित नागर नाम का भी एक अपभ्रंश माना जाता था, जिससे (कुछ लोगों की राय में) महाराष्ट्री और शौरसेनी की उत्पत्ति हुई। कुछ विद्वान् ‘मागधी’ को ‘शौरसेनी’ का अपभ्रंश बताते हैं तो कुछ ‘मागधी’ को मूल प्राकृत, जबकि कुछ ‘महाराष्ट्री’ को मूल प्राकृत ‘शौरसेनी’ और ‘मागधी’ के मेल से उत्पन्न ‘अर्द्धमागधी’ नाम की एक अपभ्रंश भाषा थी, जिससे पूर्वी हिन्दी का विकास हुआ। हमारे विचार में तो यह भी एक क्रान्ति का युग था और इन अपभ्रंशों में पारस्परिक समानता और असमानता देखकर ही विद्वानों ने “अपनी- अपनी डफली अपना-अपना राग” वाली कहावत चरितार्थ की है। यदि ‘मागधी’ (जिससे बिहारी बोली की सृष्टि हुई है) के पूर्व-रूप को बौद्ध-धर्म के कारण विशेष महत्त्व मिला, तो अर्द्धमागधी को महावीर स्वामी और दूसरे जैन तीर्थंकरों के कारण उतना ही महत्त्व प्राप्त हुआ था।

हिन्दी-संसार में मैथिली का भी उल्लेखनीय स्थान है, यद्यपि प्राच्य प्राकृत से उत्पन्न होने के कारण यह बाँग्ला भाषा की सगी बहन है। प्रख्यात भाषाविद् डॉ० ग्रियर्सन की अवधारणा शौरसेनी तथा अर्द्धमागधी के मेल से ही वर्तमान हिन्दी की सृष्टि हुई है।

डॉ० ग्रियर्सन की यह सम्मति और भी कितने ही विद्वान् लेखकों ने मान ली है, परन्तु हमारा विश्वास है कि वर्तमान हिन्दी पर पंजाबी का पूरा प्रभाव पड़ा है। इस विश्वास की पुष्टि में कितने ही उदाहरण दिये जा सकते हैं। संस्कृत की यास्यति क्रिया का प्राकृत रूप जाएज्जा है। पंजाबी में इसका अपभ्रंश जाएगा अथवा जावेगा है, जो कि आजकल बोल-चाल की हिन्दी में आता है। शौरसेनी से विकसित ब्रजभाषा में जायगा कहेंगे और अर्द्धमागधी के विकसित रूप में जैहै अथवा जइहै। ब्रज-भाषा में जहाँ घोड़ो कहा जाता है, वहाँ पंजाबी में घोड़ा और इसी रूप में आधुनिक हिन्दी में भी बोला जाता है। पंजाबी का प्रभाव हिन्दी पर बांगड़ बोली की कृपा से पड़ा, जो दिल्ली और पंजाब तथा दिल्ली और राजस्थान के बीच की भाषा है। जिस राज्य में यह बोली जाती है, उसे ‘हरियाणा’ कहते हैं। इस पर राजस्थानी का भी प्रभाव पड़ा है।

डॉ० ग्रियर्सन के ‘Linguistic Survey of India’ नामक ग्रन्थ में से इसका एक उदाहरण यहाँ दिया जा रहा है, “एक माणस के दो छोरे थे। उनमें तै छोट्टे ने बाप्पू तै कह्या अक “1 बाप्पू हो धन का जौणसा हिस्सा मेरे बाँडे आवे सै मन्नै दे दे।’

इसी से मिलती-जुलती भाषा दिल्ली के आसपास तथा और भी कई जगह बोली जाती है। इधर, आगरा की बोल-चाल की भाषा पर ध्यान देने से भी खड़ी बोली की उत्पत्ति शौरसेनी + अर्द्धमागधी तथा पंजाबी + पैशाची के अपभ्रंश से सिद्ध हो जाती है। पंजाबी के सम्बन्ध में यह बात ध्यान में रखने योग्य है कि इसकी उत्पत्ति पंजाबी-प्राकृत तथा पैशाची के मेल से हुई है। पैशाची, जिसे ‘भूत-भाषा’ भी कहते थे, उत्तर-पंजाब में, कश्मीर की ओर बोली जाती थी। कुछ विद्वानों की राय में वह मध्यप्रदेश और राजपूताने के आसपास बोली जाती थी, परन्तु प्रमाणों से यह बात सिद्ध नहीं होती । संस्कृत और प्राकृत से उसका क्या सम्बन्ध था, यह दिखाने के लिए कुछ उदाहरण देने अनुचित न होंगे।

इन उदाहरणों से सूचित है कि पैशाची का लगाव संस्कृत से अधिक है, प्राकृत से कम । ऊपर के उदाहरण में सहदे दिया हुआ है; इसी अर्थ में आधुनिक हिन्दी में सहते (हैं) कहेंगे। ‘सहइ’ तो प्राकृत का रूप है, जो ब्रज भाषा में ‘सहहि’ का रूप धारण कर लेगा। हाँ, आगरा की बोली के प्रभाव के कारण सहै है सरीखे रूप में भी उसमें आते रहे हैं। इस उदाहरण से यह प्रमाणित हो जाता है कि खड़ी बोली की क्रियाएँ किधर से आयी हैं। इनमें से एक रूप (सहता, करता आदि) का वंश-वृक्ष देखने से अर्द्धमागधी और शौरसेनी का कहीं पता भी नहीं मिलता। ऐसे और भी अनेक उदाहरण दिये जा सकते हैं।

अवन्ती में प्राकृत का जो रूप प्रचलित था, उसी से कुछ सज्जन राजस्थानी की और उसी से मिलते-जुलते एक और रूप गौर्जरी से गुजराती की उत्पत्ति मानते हैं। इसमें सन्देह नहीं कि राजस्थानी और गुजराती का तुलनात्मक अध्ययन करने से दोनों का विकास एक ही स्थान से हुआ दिखता है। राजपूताने के कुछ भागों की बोली और इधर मालवा की बोली से गुजराती की बहुत अधिक समता है। इससे उल्लिखित सिद्धान्त की और भी पुष्टि हो जाती है। ब्रज-भाषा और राजस्थानी में जो समता दिखती है, उसका कारण इन दोनों का ही नागर अपभ्रंश से उत्पन्न होना हो सकता है क्योंकि शौरसेनी को भी कुछ विद्वानों ने नागर अपभ्रंश का ही एक भेद माना है। इसी तरह, प्राकृत के अवन्तीबाला रूप भी, जिससे राजस्थानी की उत्पत्ति मानी जाती है, नागर अपभ्रंश का ही एक भेद कहा जाता है।

पूर्वी हिन्दी – बैसवाड़ी (जिसको अवधी भी कहते हैं) और बघेलखण्ड तथा छत्तीसगढ़ में बोली जानेवाली भाषाओं की उत्पत्ति ‘अर्द्ध-मागधी’ से है, जो वस्तुतः ‘मागधी’ और ‘शौरसेनी’ का घालमेल है।

भाषाओं के इस प्रकरण पर विचार करते समय यह बात नहीं भूलनी चाहिए कि इन सबकी मूल भाषा एक ही थी और इसी कारण अनेक अपभ्रंश हो जाने पर भी सबमें समानता की एक लहर प्रवाहित हुई, जो अब भी देखी जा सकती है। उदाहरणार्थ, करता हूँ के अर्थ में करदा हाँ, करत हौं, करूँ हूँ, करि आदि एक ही से अथवा एक-दूसरे से बहुत कुछ मिलते- जुलते सभी राज्य स्तरीय बोलियों में मिलेंगे। इसी प्रकार और भी अनेक संज्ञाओं, सर्वनामों तथा क्रियाओं के उदाहरण दिये जा सकते हैं। अब अपभ्रंश से हिन्दी का सम्बन्ध दिखाने के लिए नीचे कुछ उदाहरण दिये गये हैं :-

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